जन्मदिवस पर विशेष -: श्रमण संस्कृति के सजग प्रहरी

महेश ढौंडियाल – नई दिल्ली

विद्या एवं जैन जगत् के वरिष्ठ मनीषी श्रुत सेवी आदरणीय प्रो.डॉ. फूलचन्द्र जैन प्रेमी जी श्रुत साधना की एक अनुकरणीय मिसाल हैं, जिनका पूरा जीवन मात्र और मात्र भारतीय प्राचीन विद्याओं,भाषाओं,धर्मों,दर्शनों और संस्कृतियों को संरक्षित और संवर्धित करने में गुजरा है । काशी में रहते हुए आज वे अपने जीवन के 76 वर्ष और विवाह के इक्यावन वर्ष पूरे कर रहे हैं और उम्र के इस पड़ाव में भी युवाओं से भी ज्यादा जोश ,लगन और पूरे तन -मन -धन से अपने इसी मिशन में निरंतर लगे हुए हैं । आपने लेखन के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं और आपकी लेखनी से ही श्रमण संस्कृति वैदिक व्रात्य एक ऐसी पुस्तक की रचना हुई है , जो भारतीय जनमानस के मध्य श्रमण जैन संस्कृति की गौरवशाली परम्परा एवं प्राचीनता को सप्रमाण सिद्ध कर रही है। प्राचीन काल से ही काशी में विद्वानों की एक समृद्ध परंपरा रही है ,अनेक विधाओं के विद्वान् इसी भूमि पर अपनी साधना करते हुए भारतीय भाषाओँ और विद्याओं का डंका पूरे विश्व में बजाते आ रहे हैं। संस्कृत–प्राकृत भाषाओं ,भारतीय दर्शन और श्रमण संस्कृति की विधा में पिछले पचास वर्षों से निष्काम साधना करने वाले और अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को तथा अनेक शिष्यों को इन्हीं विद्याओं में परंपरागत रूप से लगा कर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले प्रो. प्रेमी काशी की पाण्डित्य परंपरा के ऐसे महनीय व्यक्तित्व के धनी मनीषी हैं, जो अपने सौम्य स्वभाव ,मधुर वाणी ,सदा प्रसन्न मुद्रा , विनम्रता, निरभिमानता,निष्कपटता के कारण,एक आम नागरिक और विद्यार्थी से लेकर बड़े-बड़े विद्वानों, श्रेष्ठियों, उद्योगपतियों, मंत्रियों,साधु -संतों और साधकों के तक के ह्रदय में सदा गहरे आत्मीय भाव से विद्यमान रहते हैं ।कभी इनसे पांच मिनट भी मिलने वाला मनुष्य जीवन भर इन्हें भुला नहीं पाता है। प्राच्य भारतीय संस्कृति, इतिहास, जैनधर्म-दर्शन, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश भाषा एवं साहित्य क्षेत्र में आपने अप्रतिम कार्य किये हैं। इनकी सेवाओं को देखते हुए महामहिम राष्ट्रपति जी ने आपको राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया है तथा उ.प्र.के महामहिम राज्यपाल महोदय और माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने आपको विशिष्ट पुरस्कार तथा जैन विश्व भारती, लाडनूं ने आगम मनीषा सम्मान से सम्मानित किया है।

जीवन संदेश –

आपका जीवन एक खुली पुस्तक की तरह रहा है । स्वयं अपने बारे में बताते हुए वे अक्सर कहते हैं कि मैं अपने अध्ययनकाल में कभी बहुत अधिक प्रतिभाशाली विद्यार्थी नहीं रहा । परीक्षाओं में बहुत उच्च अंक नहीं आते थे ,लेकिन मैंने कभी हार नहीं मानी और मार्ग में आयीं अनेक कठिनाइयों ,निराशाओं आदि का साहस के साथ सामना करते हुए आगे बढ़ता रहा । मुझे बड़े बड़े लेखकों साहित्यकारों के निबंध और पुस्तकें पढ़ना और डायरी लेखन बचपन से पसंद रहा है । इन्हीं से मैं साहस प्राप्त करता था और प्रोत्साहित होता रहा और खुद को हर मुश्किल और संघर्ष में संभालता था । किसी भी कीमत पर मुझे श्रुत की रक्षा करनी है – यह संकल्प मेरे दिल और दिमाग में हमेशा चलता रहा और मैं ईमानदारी और निष्ठा से विद्याभ्यास करता रहा । मैंने कभी कोई दूसरे हानिकारक ऐब नहीं पाले क्यों कि अध्ययन अध्यापन लेखन ,दर्शन-पूजन का स्वभाव मुझे हमेशा अपने इन्हीं सब कार्यों में डुबो कर रखता था। ‘चुपचाप अपनी कर्त्तव्य साधना ईमानदारी से करते रहो क्यों कि सफलता तुम्हारे शुद्ध लक्ष्य और भाव पर भी आधारित होती है, सिर्फ टैलेंट पर नहीं ।जीवन को सार्थक बनाओ ,सफलता खुद ब खुद पैर चूमती है ।’ – यही प्रेमी जी के जीवन का आज के सभी युवाओं और विद्यार्थियों के लिए संदेश भी है।

शिक्षा एवं कार्य क्षेत्र का चुनाव –

कक्षा 5 तक की शिक्षा तो आपने अपने गाँव के सरकारी विद्यालय में प्राप्त की फिर कटनी (म. प्र.) के श्री शान्ति निकेतन जैन संस्कृत विद्यालय में रहकर पूर्व मध्यमा कक्षा तक, बाद में वर्णी जी द्वारा स्थापित काशी के सुप्रसिद्ध श्री स्याद्वाद महाविद्यालय में रहते हुए आपने शास्त्री,आचार्य(जैन दर्शन और प्राकृत ), काशी हिंदू विश्वविद्यालय से संस्कृत में जैन एवं बौद्ध विद्या वर्ग से एम. ए. और यहीं के दर्शन विभाग से ‘मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन’ विषय पर पीएच.डी.की उपाधि प्राप्त की l तदनंतर पारमार्थिक शिक्षण संस्था ,जैन विश्व भारती ,लाडनूं,(राज.) में जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग में चार वर्ष तक अध्यापन कार्य किया lअनंतर संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में बत्तीस वर्ष तक जैनदर्शन विभागाध्यक्ष एवं आचार्य पद को सुशोभित करते हुए आपने अनेक प्राकृत एवं संस्कृत के प्राचीन मूल ग्रंथों का न सिर्फ अध्यापन कार्य किया बल्कि लेखन ,संपादन और प्रकाशन भी किया । इसके पश्चात् आपने दिल्ली स्थित भोगीलाल लहेरचन्द इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडोलॉजी के निदेशक पद को सुशोभित करते हुए बहुमूल्य सेवाएं दी हैं। आप अखिल भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत् परिषद् के अध्यक्ष,शास्त्री परिषद् कार्यकारिणी सदस्य एवं जैन विश्वभारती संस्थान,(मानद विश्वविद्यालय) लाडनूं में एमेरिटस प्रोफेसर भी रह चुके हैं । आप अनेक शोधार्थियों को शोध कार्य करवा चुके हैं तथा देश विदेश के अनेक विद्यार्थी आपसे मार्ग दर्शन लेने अलग से काशी आते रहते हैं। वर्तमान में आप स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के अधिष्ठाता तथा तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय,मुरादाबाद के एमरेटस प्रोफेसर के रूप में अनेक वर्षों से सेवा दे रहे हैं । काशी में नरिया स्थित श्री गणेशवर्णी शोध संस्थान के उपाध्यक्ष,पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोध संस्थान की विद्या परिषद् के सदस्य होने के साथ साथ अनेक विश्वविद्यालयों एवं अकादमिक और सामाजिक संस्थानों की अनेक समितियों में आपकी सक्रिय भूमिका रहती है । आप मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संस्कृत परिषद् के सदस्य रह चुके हैं तथा मथुरा से प्रकाशित प्राचीन पाक्षिक पत्रिका ‘जैन सन्देश’ के मानद सम्पादक भी हैं । राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ ,विश्व हिन्दू परिषद् ,संस्कृत भारती ,क्रिश्चियन सोसाइटी,बुद्ध सोसाइटी,जैन सोसाइटी आदि अनेक सामाजिक संगठनों द्वारा आयोजित सर्वधर्म समन्वय एवं अन्य कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभाई है। जैन इतिहास ,कला एवं पुरातत्व में गहरी रूचि होने से आपने अनेक निबंध और पुस्तक इस विषय पर लिखे और कई पुराने तीर्थ और पुरातात्त्विक प्रमाणों की खोज भी की ।

अकादमिक कार्यों के साथ साथ आप समाज में ज्ञान की अलख जगाने के लिए शास्त्रीय प्रवचनकार भी हैं तथा देश में अनेक स्थानों पर पारंपरिक शास्त्रपीठों पर आपके सैकड़ों प्रवचन हुए हैं ,जिसके कारण समाज के आम जन आपको ससम्मान ‘पण्डित जी’ कहकर पुकारते हैं और मित्र बंधुओं में आप ‘प्रेमी जी’ संबोधन से विख्यात हैं। शिष्यगण ‘गुरु जी’ कह कर संबोधित करते ही हैं। काशी स्थित तीर्थंकर पार्श्वनाथ की जन्मस्थली भेलूपुर दिगंबर जैन मंदिर में नियमित शास्त्र सभा प्रारंभ करने का श्रेय आपको जाता है । यहाँ अनवरत आपने आम जन को प्राकृत ग्रन्थ समयसार,द्रव्यसंग्रह आदि तथा संस्कृत ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र आदि का स्वाध्याय करवाया है ।आपने यहाँ प्राकृत भाषा का डिप्लोमा कार्यक्रम भी चलाया । परिणाम स्वरुप अनेक महिला पुरुष आगम और प्राकृत भाषा बोलने और लिखने में दक्ष हो गए ।आपने स्याद्वाद महाविद्यालय में सर्वप्रथम प्राकृत संभाषण की कार्यशाला का प्रारंभ किया ।विश्व व्यापी महामारी करोना के समय भी आपकी अध्यापन श्रृंखला रुकी नहीं ,नई तकनीक सीखकर आपने अपना स्वाध्याय ऑनलाइन माध्यम से भी जारी रखा । जैन फाउंडेशन ,मुंबई के तत्त्वावधान में छः माह तक देश विदेश के लगभग ३०० लोगों को प्राकृत भाषा का नियमित अभ्यास करवाया और डिप्लोमा की परीक्षा भी ली।

पारिवारिक पृष्ठभूमि भी है अनोखी-

आप का जन्म दिगंबर जैन परवार जाति के बैसाखिया कुल के गोइल्ल गोत्र में दिनाँक 12 जुलाई 1948 को दलपतपुर (जिला सागर), म.प्र. में अत्यंत संभ्रांत और उच्च कुलीन खानदान के धर्मात्मा माता-पिता सिंघई नेमीचंद जैन-श्रीमती उद्यैती देवी जी के यहाँ हुआ। बुंदेलखंड की धरा पर जन्म लेने से अपने देश ,धर्म और संस्कृति के प्रति स्वाभिमान आपके रग-रग में भरा था । परिवार में पारंपरिक रूप से कृषि कार्य होने से प्राकृतिक जीवन और सीमित संसाधनों में रह कर कार्य करना आज भी इनकी जीवन चर्या का अंग है । ‘सादा जीवन उच्च विचार’आपके जीवन का आधार और ध्येय रहा है । परिवार में सबसे बड़ी दो बहनों के बाद पांच भाइयों में आप चौथे नंबर के भाई हैं और बचपन से ही गाँव के जैन मंदिर में चलने वाली शास्त्र सभा और पाठशाला में जाने से और अपने माता पिता की प्रेरणा से आपने संस्कृत शिक्षा को अर्जित करने के लिए कक्षा 6 से ही कटनी स्थित जैन संस्कृत विद्यालय और गुरुकुल में पूर्वमध्यमा तक पढ़कर उच्च शिक्षा हेतु काशी आ गए। आपका विवाह दमोह म.प्र.में दिगंबर जैन परवार जाति के उच्चकुलीन परिवार में धर्मात्मा श्री हुकमचंद जैन एवं श्रीमती जैन की बड़ी पुत्री मुन्नी जैन के साथ संपन्न हुआ।आपकी धर्म पत्नी विवाह के समय मात्र ग्यारहवीं परीक्षा उत्तीर्ण थीं । अपने पति की श्रुत सेवा में कदम से कदम मिलाते हुए आपने विवाहोपरांत बी.ए.,एम.ए.,जैनदर्शनाचार्य,प्राकृताचार्य आदि की पारंपरिक उपाधियाँ प्राप्त करने के अनंतर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से ‘जैन मनीषी पंडित सदासुखदास जी का हिंदी गद्य के विकास में योगदान’ विषय पर गहन शोधकार्य करते हुए पी एच डी की उपाधि प्राप्त की । सभी पारिवारिक दायित्यों को निभाते हुए भी आपने प्रेमी जी के साथ और स्वतंत्र रूप से अनेक पांडुलिपियों का संपादन और प्रकाशन किया है।आप प्राचीन ब्राह्मी लिपि की विशेषज्ञा हैं ,इसी लिपि के प्रशिक्षण की आप द्वारा बड़े बड़े शहरों में अनेक कार्यशालाएं आयोजित की जा चुकीं हैं ।आपको अनेक विशेष पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।

गुरु परंपरा-

प्रो प्रेमी जी विद्वत् जगत् के सूर्य माने जाने वाले पंडित कैलाशचंद जी सिद्धांतशास्त्री जी ,पंडित फूलचंद सिद्धांतशास्त्री जी, पंडित जगन्मोहनलाल जी सिद्धांतशास्त्री,पंडित दरबारीलाल जी कोठिया न्यायाचार्य ,पंडित उदयचंद जी जैन सर्वदर्शनाचार्य, पं. भोलानाथ जी पांडेय, पं. दिवाकर जोशी शास्त्री, पं. गोविंद नरहरि बैजापुरकर,पंडित सूर्यनारायण उपाध्याय आदि श्रेष्ठ गुरुजनों के साक्षात् शिष्य रहे हैं ।इसके अलावा डॉ.सम्पूर्णानन्द जी, पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ,पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी जी ,पंडित सीताराम शास्त्री ,पंडित वासुदेव द्विवेदी, ,पंडित अमृतलाल जैन, पंडित दलसुखभाई मालवड़िया, प्रो. नथमल जी टाटिया, डॉ. जगदीशचंद्र जी जैन,प्रो. सागरमल जैन,प्रो रेवाप्रसाद द्विवेदी जी आदि अनेक श्रेष्ठ विद्वानों का निरंतर सानिध्य प्राप्त किया एवं डॉ.मोहनलाल मेहता जी के कुशल निर्देशन में पार्श्वनाथ विद्यापीठ में रहकर शोध कार्य किया।

अद्भुत शिष्य परंपरा –

सामान्यतः प्रत्येक अध्यापक के हजारों शिष्य होते हैं जिन्हें वे जीवन भर पढ़ाते रहे हैं ,प्रो प्रेमी जी की इसके अलावा भी एक अद्भुत शिष्य परंपरा है। श्रवणबेलगोला के स्वामी चारुकीर्ति भट्टारक स्वामी जी ने अनेक ब्रह्मचारी और भट्टारकों को इनके सान्निध्य में अध्ययन हेतु काशी भेजा ,आपने बहुत प्रेम से उन्हें पढ़ाया और अन्य अनेक सहयोग दिए। वे आज दक्षिण के बड़े बड़े मठों के स्वामी जी हैं। आपसे शिक्षा प्राप्त अनेक ब्रह्मचारी और छात्र आज अनेक मुनि संघों में ऐलक,क्षुल्लक और मुनि-आर्यिका के रूप में मोक्ष मार्ग की साधना कर रहे हैं। आपसे पढ़े हुए अनेक श्वेताम्बर मुनि,साध्वियां तथा समणियां हैं, जो विभिन्न संघों में अध्ययन अध्यापन एवं साधना कर रही हैं।इसके अलावा विदेशों से अनेकों शोधार्थी भी आपसे मार्गदर्शन हेतु सदा से आते रहे हैं। घर पर पधारे सभी विद्यार्थियों को उनकी गुरुमाता डॉ. मुन्नी जी प्रेमपूर्वक वात्सल्य भाव से आहार करातीं और गुरु जी ज्ञान कराते –इस तरह ज्ञानदान और आहारदान की श्रृंखला आरम्भ से ही आज तक चल रही है और इनकी पूरी शिष्य परंपरा इस बात की भी गवाह है कि गुरु जी ने कभी किसी शिष्य से गुरुदक्षिणा स्वीकार नहीं की।

योग्य शिष्यवत् सुपुत्र और सुपुत्री भी –

प्रायः विद्वानों में यह भी पीड़ा रहा करती है कि हम दुनिया को समझाते हैं और प्रेरणा देते हैं किन्तु अपने ही घर वाले उनकी नहीं सुनते।प्रो.प्रेमी जी अक्सर ब्राह्मण परंपरा की प्रशंसा करते हुए नहीं थकते कि वे पीढ़ी दर पीढ़ी वेद शास्त्रादि का संरक्षण और संवर्धन करते हैं तभी वेद और संस्कृत भाषा आज भी जीवंत है ।काशी के संगीत ,तबला,शहनाई आदि कला के क्षेत्र के घरानों को देखकर भी आप इस बात के लिए प्रेरित हुए कि अपने परिवार के बच्चों को श्रुत आगम शास्त्र और उसकी मूल भाषा प्राकृत के संरक्षण और संवर्धन हेतु समर्पित करें और परंपरागत रूप से जैनविद्या को आगे बढ़ायें । ह्रदय से सरल और महान लोगों की कल्याणपरक सहज मनोभावनाएँ कभी निष्फल नहीं जाती हैं ,प्रकृति स्वयमेव उसी ओर परिणमन करने लगती है। यही प्रेमी जी के परिवार में हुआ उनकी धर्मपत्नी डॉ.मुन्नी पुष्पा जैन तो उनके शाश्वत मार्ग में लगी ही थीं ,दोनों ने मिलकर अपने दोनों पुत्रों और पुत्री को भी बाल्यकाल से ही इसी मार्ग पर समर्पित कर दिया और आरम्भ से ही संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओँ का शिक्षण देना प्रारंभ कर दिया। इतना ही नहीं, पुण्योदय से इनके परिवार से जुड़ने वाले इनके एक दामाद और दो बहुयें भी अत्यंत धर्मात्मा खोजीं और कालांतर में प्रेम से उन्हें भी इसी अभियान में जोड़ लिया।भौतिक युग में प्राच्य विद्या के क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम विद्यार्थी होने से प्रो.प्रेमी जी ने घर पर ही श्रुत सेवियों की एक फ़ौज खड़ी कर डाली। आपके बड़े सुपुत्र युवा राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित प्रो डॉ.अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली स्थित श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय में जैन दर्शन विभाग के आचार्य हैं तथा अनेक शोध पत्रों ,लेखों एवं पुस्तकों के प्रकाशन के साथ आप प्राकृत भाषा में निरंतर प्रकाशित होने वाले प्रथम समाचार पत्र ’पागद-भासा’ के संस्थापक संपादक हैं और अपने शास्त्रीय प्रवचनों और व्याख्यानों के लिए देश विदेश में जाने जाते हैं। आपकी पुत्र वधु डॉ.रूचि जैन ने जैन योग पर शोधकार्य करके पी.एच.डी की उपाधि प्राप्त की है।सुपौत्र सुनय जैन एवं सुपौत्री अनुप्रेक्षा जैन भी इसी पथ पर अग्रसर हैं। आपकी सुपुत्री डॉ. इन्दु जैन राष्ट्र गौरव ने भी शौरसेनी प्राकृत साहित्य पर शोध उपाधि प्राप्त की है। आप उद्घोषिका, लेखिका, मोटिवेशनल स्पीकर एवं राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय जैन प्रतिनिधि के रूप में जैन धर्म दर्शन की प्रभावना कर रहीं हैं। आपने नवीन संसद भवन के शिलान्यास और उद्घाटन में जैन धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए प्राकृत ,संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओँ में मंगलाचरण प्रस्तुत कर एक ऐतिहासिक कार्य किया है जिसे सम्पूर्ण विश्व में सराहा गया। दामाद श्रीमान् राकेश जैन जी समर्पित समाजसेवी हैं और जैन धर्म की प्रभावना में संलग्न रहते हैं। आपके सबसे छोटे पुत्र डॉ.अरिहन्त कुमार जैन मुंबई में सोमैया विद्या विहार विश्वविद्यालय में जैन विद्या विभाग में सहायक आचार्य हैं । आपने प्राच्य विद्या में दो पी.एच.डी प्राप्त की हैं । कला और साहित्य के क्षेत्र में कार्य करते हुए आपने प्राकृत भाषा पर एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाई जिसकी ख्याति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुई । आप एक इंटरनेशनल न्यूज़ लैटर ‘प्राकृत टाइम्स’ का अंग्रेजी में निरंतर संपादन कार्य कर रहे हैं ।आपके कई लेख अंग्रेजी हिंदी में प्रकाशित हैं | बहू श्रीमती नेहा जैन धर्म दर्शन की प्रभावना में संलग्न हैं और जैनयोग पर कार्य कर रही हैं।

इस प्रकार आपकी अनेक पुस्तकों और लेखों के अलावा ये तीन जीवंत कृतियाँ भी हैं जो श्रुत आराधना और सेवा में निरंतर संलग्न हैं। इतना ही नहीं आपने अपने अन्य भाइयों के सुपुत्रों अर्थात् अपने भतीजों को भी गाँव से बाहर अध्ययन हेतु संस्कृत महाविद्यालयों में भेजा l जिसके सुपरिणाम स्वरूप आपके तीन भतीजे पंडित कमल कुमार शास्त्री ,कोलकाता,डॉ.आनंद शास्त्री कोलकाता एवं डॉ.कमलेश शास्त्री वाराणसी देश के प्रसिद्ध विधानाचार्य एवं प्रतिष्ठाचार्य के रूप में समाज में अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। इनमें डॉ. आनंद एवं डॉ.कमलेश को आपने अपने निर्देशन में ही पी-एच. डी. उपाधि हेतु शोधकार्य करवाया है।

अनेक आचार्यों-संतों और विद्वानों के प्रिय प्रेमी जी –

जैन परंपरा में चाहे दिगंबर परंपरा हो या श्वेताम्बर ,शायद ही ऐसे कोई आचार्य ,साधु और विद्वान होंगें जो प्रो. प्रेमी जी की श्रुत साधना की प्रशंसा न करते हों । उनके गंभीर ज्ञान और सरल स्वभाव के सभी मुरीद हैं।

परमपूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी से आपकी तभी से विशेष निकटता रही है, जब आप लगभग 50 वर्ष पूर्व बी. एच. यू. से मूलाचार पर पी-एच. डी. कर रहे थे l आपसे इस शोध कार्य में अनेक विषयों में उचित मार्गदर्शन और अनेक जटिल समाधान भी प्राप्त किये थे l इसीलिए विनम्र और विशेष अनुरोध करने पर लगभग चार दशक पूर्व ललितपुर में मूलाचार पर आधारित आपके इस शोधप्रबंध की संघस्थ कुछ मुनियों के साथ पूज्यश्री ने वाचना की थी l ताकि कोई आचारगत और सैद्धांतिक कोई चूक न रह जाए l इसके बाद ही इसे पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोध संस्थान, वाराणसी से प्रकाशित कराया था l आपके इस शोध प्रबंध पर प्राकृत साहित्य के विश्व विश्रुत विद्वान् डॉ. जगदीश चंद्र जैन ने प्रस्तावना लिखी है l अभी आपकी कृति ‘श्रमण संस्कृति और वैदिक व्रात्य’ प्राप्त करते ही आचार्यश्री ने आद्योपांत पढ़कर बहुत प्रशंसा की ।आपके प्रस्ताव पर पूज्य आचार्य विद्यानंद मुनिराज ने श्रुत पंचमी को प्राकृत दिवस घोषित किया। सन् 1999 में तपस्वी सम्राटत आचार्य श्री सन्मति सागर जी का जब ससंघ चातुर्मास वाराणसी में हुआ तब उनकी इच्छा और आदेशानुसार आपने पूरे संघ और समाज के मध्य आचार्य कुंदकुंद रचित अष्टपाहुड की निरंतर 45 दिन तक वाचना -विवेचना की l इसके बाद लगभग एक माह तक वसुनंदि श्रावकाचार ग्रंथ की लगातार वाचना की। पूज्य आचार्य श्री ने इसे काशी चतुर्मास की एक बड़ी उपलब्धि माना था l इसके फल स्वरूप वर्तमान में बड़े संघ के प्रभावक आचार्य सुनीलसागर जी जो उस समय अपने गुरु के संघ में मुनि अवस्था में अध्ययन एवं साधना में निरंतर दत्तचित्त रहते थे,वाचना के आधार पर आपने वसुनंदि श्रावकाचार नामक एक ग्रंथ संपादित करके प्रकाशित कराया था । परम पूज्य आचार्यश्री विमल सागर जी,आचार्य भरतसागर जी,आचार्य वर्धमान सागर जी,आचार्य ज्ञानसागर जी,आचार्य रागसागरजी,आचार्य विशुद्धसागर जी,आचार्य श्रुतसागर जी,आचार्य प्रज्ञसागर जी,आचार्य वसुनंदी जी ,आचार्य प्रसन्नसागर जी आदि अनेक पूज्य आचार्य एवं संघ के मुनि आपसे विविध विषयों और समस्याओं पर निरंतर चर्चाएं करते रहते हैं । परम पूज्य निर्यापक श्रमण मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी के भी प्रमुख आत्मीय शुभाषीश प्राप्त विद्वानों में प्रो प्रेमी जी हैं और उन्हें यह सौभाग्य लम्बे समय से प्राप्त है। आचार्य तुलसी जी,आचार्य महाप्रज्ञ जी,आचार्य शिवमुनि जी,मुनि श्री महेंद्र कुमार जी आदि अनेक श्वेताम्बर परंपरा के आचार्यों एवं मुनियों के साथ आपका बहुत ही आत्मीय भाव रहा तथा अनेक कार्यों एवं योजनाओं पर वे प्रेमी जी से चर्चाएं करते रहे हैं। परम पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमति माता जी,आर्यिका श्री सुपार्श्वमति माता जी , श्री स्याद्वादमति जी आदि अनेक आर्यिकाओं का वात्सल्य भाव प्रेमी जी के प्रति हमेशा से रहा है। अपने शिष्यों को उनकी गलती पर स्वतः टोकना प्रेमी जी का हमेशा से स्वभाव रहा है,भले ही उन्हें अच्छा लगे या बुरा ,किन्तु आश्चर्य यह भी है कि प्रेमी जी साधुओं और आचार्यों को भी कल्याण के पावन उद्देश्य से व्यक्तिगत तौर पर उन्हें उनकी कमियां बता देते हैं और स्वपर कल्याण में सच्चे मन से लगे साधक उन्हें सुनने को आतुर रहते हैं और सुधार भी करते हैं ।प्रेमी जी का सदा से यह आदर्श रहा है कि व्यर्थ के विवाद में हमेशा मौन रहो और जब सत्य का हनन हो रहा हो तो ‘अपृष्टैरपि वक्तव्यम्’ – कोई बोलने को न कहे ,न पूछे तब भी जरूर बोलना चाहिए ।श्रवणबेलगोला के परम प्रभावक भट्टारक चारुकीर्ति स्वामी जी के लम्बे समय से अति निकट स्नेहपात्र रहे हैं l आपके निर्देशनानुसार सन् 2006 के महामस्तकाभिषेक महामहोत्सव में विशाल अखिल भारतीय जैन विद्वत्सम्मेलन के मुख्य संयोजकत्व का सफल दायित्व एवं सन् 2018 में इसी अवसर पर अखिल भारतीय संस्कृत विद्वत्सम्मेलन का इन्होंने अपार सफलता के साथ संयोजन कार्य भी किया ।अनेक वैदिक तथा अन्य परंपराओं के साधु और वरिष्ठ विद्वान् आपसे सलाह परामर्श लेते रहते हैं ।पंडित जगन्नाथ उपाध्याय जी , पंडित बलदेव उपाध्याय जी ,पद्मश्री पंडित बागीश शास्त्री जी,काशी ,पंडित नीरज जैन ,सतना,प्राचार्य नरेंद्र प्रकाश जैन ,फिरोजाबाद,डॉ हुकुमचंद भारिल्ल एवं पंडित रतनचंद जी भारिल्ल जयपुर , प्रो. गोकुलचंदजी,प्रो सागरमल जैन जी,प्रो.वाचस्पति उपाध्याय जी,प्रो.रमाकांत शुक्ल जी , पंडित रतनलाल बैनाडा आदि अनेक दिग्गज विद्वान् उम्र में बड़े होकर भी इनके स्नेहपात्र के रूप में हमेशा आपसे मित्रवत् व्यवहार ही रखते थे । संस्कृत जगत् के विश्व विश्रुत् मनीषी पंडित बलदेव उपाध्याय जी लेखन के समय अनेक बार प्रेमी जी से जैन ग्रंथ मंगाते थे और परामर्श लेकर निर्णय करके ही लिखते थे । इसी प्रकार समणसुत्तं तथा जैनेंद्र सिद्धांत कोश जैसे उत्कृष्ट सुप्रसिद्ध ग्रंथों के रचयिता पूज्य क्षुल्लक जिनेंद्र वर्णी जी से भी आपका लम्बे समय तक सानिध्य रहा और आपके लेखन कार्य में भी आप अनेक समसामयिक सुझाव दिया और लिया करते थे l आदरणीय प्रो. कमलचंदजी सौगानी, प्रो. राजारामजी जैन,प्रो दयानंद भार्गव,प्रो.वशिष्ट त्रिपाठी जी प्रो प्रेमसुमन जी जैन ,प्रो रमेशचंद जैन जैसे अनेक वरिष्ठ विद्वानों से आपको सदा आत्मीय मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है l अनेक वर्तमान उच्च कोटि के सभी जैन-अजैन देश एवं विदेश के विद्वानों में भी आप सभी के प्रिय और आदरणीय हैं।

व्यक्तिगत जीवन दर्शन –

‘खुद कभी किसी के दबाव में न रहना और न ही किसी अन्य को अपने दबाव में रखना’- ये प्रदर्शन जीवन जीने का सदा से अंदाज रहा है।जीवन में सात्विकता , ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठता आपका आधार रहा है ।जीवन में और लेखन-संपादन में ,दोनों में ही आपको प्रामाणिकता हमेशा से पसंद रही है ।शोधकार्य में सन्दर्भों आदि का मिलान जब तक मूल ग्रंथों से न कर लें तब तक आगे नहीं बढ़ते हैं, चाहे कितना भी समय लग जाय । साहित्य सेवा में जल्दीबाजी इन्हें कभी पसंद नहीं रही ।सामाजिक दृष्टि से आप हमेशा समन्वयवादी दृष्टिकोण के पक्षधर रहे हैं ,मतों,पंथों को लेकर कट्टरता को आपने कभी प्रश्रय नहीं दिया। उदारवादी और समन्वयवादी होते हुए भी आप सिद्धांतों के मामले में बहुत दृढ रहते हैं और इस स्तर पर कभी कोई समझौता नहीं किया। चाहे इस कारण कितनी कठिनाई अथवा नुकसान ही क्यों न उठाना पड़ा हो। पुस्तक और प्रकृति के निकट रहना इन्हें बहुत पसंद है इसलिए आपने काशी में अपने निजी भूखंड के आधे हिस्से में अपना आवास ‘अनेकांत-विद्या-भवनम् ’ का निर्माण कर हज़ारों दुर्लभ और बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह कर एक पुस्तकालय का निर्माण स्वयं के खर्चे पर किया और शेष आगे के हिस्से में विभिन्न किस्म के पौधे पेड़ और बगिया को पल्लवित किया जिसकी स्वयं ही जीवन भर देखभाल की है।नियमित देव दर्शन-पूजन करना ,योग-ध्यान करना,मौसमी फलों का सेवन करना – ये आपकी दिनचर्या का अंग है।आज भी दिनभर में लगभग 8 घंटे का समय अध्ययन, स्वाध्याय, लेखन, आनलाइन अध्यापन आदि कार्यों द्वारा साहित्य साधना में व्यतीत करते हैं।

आगम एवं साहित्य सेवा में लगाया जीवन-

आपने कई मौलिक ग्रंथों के सृजन के साथ-साथ अनेक ग्रंथों का सम्पादन किया है ।काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पीएच.डी उपाधि से सम्मानित आपके शोध प्रबंध ‘मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन’ पर आपको एक साथ तीन पुरस्कारों से तथा साथ ही प्राचीन पांडुलिपि ‘मूलाचार भाषा वचनिका’ के उत्कृष्ट सम्पादन हेतु आप दोनों को उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा सम्मानित किया जा चुका है । विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में जैनधर्म-दर्शन एवं प्राकृत-संस्कृत साहित्य विषयक शताधिक शोध एवं सामयिक आलेख प्रस्तुत करने एवं उनके प्रकाशित होने के साथ-साथ आपने अनेक राष्ट्रीय संगोष्ठियों, सम्मेलनों, प्राकृत कार्यशालाओं का सफल संयोजन किया है ।वाराणसी तथा दिल्ली दूरदर्शन,आकाशवाणी पर ढेरों वार्ताएं और साक्षात्कार प्रसारित किये हैं । आपने प्राकृत,संस्कृत भाषा एवं साहित्य और जैनधर्म दर्शन विषयक चार सौ से अधिक शोध एवं समसामयिक आलेख लिखे और प्रकाशित किये हैं ।

आपके प्रकाशित मौलिक ग्रन्थ हैं - : 

१. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (तीन पुरस्कारों से पुरस्कृत प्रसिद्ध शोधप्रबन्ध) २. लाडनूं के जैनमंदिर का कला वैभव ३. जैनधर्म में श्रमणसंघ ४. जैनसाधना पद्धति में तप ५. प्राकृत भाषा विमर्श ६. श्रमण संस्कृति एवं वैदिक व्रात्य
७. काशी की जैन पांडित्य परंपरा

आपके द्वारा सम्पादिक ग्रन्थ हैं  - :

१. मूलाचार भाषा वचनिका (पुरस्कृत बृहद् ग्रन्थ ) २. प्रवचन परीक्षा ३. तीर्थंकर पार्श्वनाथ ४. आदिपुराण परिशीलन ५. आत्मप्रबोध ६. आत्मानुशासन ७. संस्कृत वाड्मय का बृहद् इतिहास (द्वादशवां खण्ड) ८. बीसवीं सदी के जैन मनीषियों का अवदान ९. आवश्यक निर्युक्ति १०. मथुरा का जैन सांस्कृतिक पुरा वैभव ११. जैन विद्या के विविध आयाम १२. स्याद्वाद महाविद्यालय शताब्दी स्मारिका १३. ऋषभ सौरभ उच्च १४. अभिनन्दन ग्रन्थ (अनेक)

पुरस्कार, अलंकरण एवं सम्मान से हुए अलंकृत –

समाज द्वारा ‘जैनरत्न’ की उपाधि से विभूषित प्रो.प्रेमी जी को उनकी सेवाओं के लिए समाज .संस्था और सरकार सभी ने सम्मानित एवं पुरस्कृत किया है ।उनमें से कुछ प्रमुख सम्मान और पुरस्कार इस प्रकार हैं –

1.श्री चांदमल पाण्ड्या पुरस्कार (१९८१) 2.महावीर पुरस्कार (१९८८) 3.चम्पालाल स्मृति साहित्य पुरस्कार 4.विशिष्ट पुरस्कार (उ.प्र. संस्कृत संस्थान,लखनऊ,१९९८) 5.श्रुतसंवर्धन पुरस्कार(१९९८) 6.गोम्मटेश्वर विद्यापीठ पुरस्कार (२०००) 7.आचार्य ज्ञानसागर पुरस्कार (२००५)
8.अहिंसा इण्टरनेशनल एवार्ड (२००९) 9.डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य पुरस्कार (२००९) 10.अ.भा.जैनविद्वत्सम्मेन (श्रवणबेलगोला) संयोजकीय सम्मान (२००६)घ 11.जैन आगम मनीषा सम्मान, जैन विश्वभारती, लाडनूं (२०१३) 12.राष्ट्रपति सम्मान(२०१८ ) 13.विशिष्ट सम्मान (२०१९ ) 14.महावीर पुरस्कार (२०१९ ) 15.ऋषभदेव पुरस्कार (२०२३ ) आदि

जीवन भर श्रुत आराधना और आत्म साधना करते हुए भी अपने पारिवारिक दायित्यों को ईमानदारी से निभाना और जीवन को सार्थक बनाना आसान बात नहीं है। प्रो.प्रेमी जी का जीवन हमें प्रेरणा देता है कि ईमानदार,प्रामाणिक और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति ही अध्यात्म की उपलब्धि कर सकता है।

आपके कुशल और सार्थक जीवन के 76 वर्ष पूर्ण होने पर तथा विवाह-साधना के पचास वर्ष पूर्ण होने पर आप दोनों का शत शत अभिनन्दन।आप इसी प्रकार सदा प्रेरणास्रोत बने रहें और आत्मकल्याण करके इस नर भव को सफल बनायें – यही हम सभी की भावना है।

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